कुछ बुद्धिजीवियों ने रची कोरोना संकट से जूझ रही मोदी सरकार को जाल में फंसाने की साजिश
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में यह नारा बहुत लोकप्रिय हुआ करता था-‘संघर्षो के
साये में इतिहास हमारा पलता है, जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता
है।’ विश्वविद्यालय प्रशासन हो या फिर सरकार, छात्र हमेशा इसी नारे से
ओतप्रोत होकर हमेशा संघर्षो के लिए तैयार रहते थे, लेकिन उस ओतप्रोत भावना
के दौरान भी छात्र और विश्वविद्यालय प्रशासन के बीच अघोषित सहमति जरूर होती
थी कि किसी भी हाल में उसमें अराजकता बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
हालांकि यह
अघोषित सिद्धांत बारंबार टूटता रहा और अराजकता इस कदर बढ़ गई कि कई
विश्वविद्यालयों में प्रशासन को छात्रसंघ खत्म करने का मजबूत आधार मिल गया।
कई बार तो विश्वविद्यालय के छात्रनेता सिर्फ इसलिए प्रशासन के खिलाफ
नारेबाजी या आंदोलन करते थे कि छात्रों का जज्बा और जोश बना रहे।
बहरहाल छात्र जीवन से निकलकर पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री,
समाजशास्त्री और एक्टिविस्ट समाज के अलग-अलग तरीके से दृष्टि देने के काम
में लगे होते हैं। सरकारी तंत्र एक तय तरीके से काम करता है और इसीलिए उस
तय तरीके को ठीक करने के लिए सरकार से बाहर बैठे समाज के अलग-अलग वर्गो में
दृष्टि रखने वाले तंत्र को दुरुस्त करने के लिए सुझाव और सलाह सरकार को
देते रहते हैं और सरकार कई बार उनके सुझावों को मान लेती है।
अक्सर सरकार से भी ऊपर एक सलाहकार समिति बनाकर सरकार को सुझाव देने के काम
में सरकार से बाहर के ऐसे लोगों का उपयोग सरकार करती है, जैसा संप्रग सरकार
में सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री से भी ऊपर का अधिकार देने के लिए एक
राष्ट्रीय सलाहकार समिति यानी एनएसी बनी जिसमें सदस्य के तौर पर ऐसे ही
सोशल एक्टिविस्ट शामिल किए गए। एनएसी भले ही सोनिया गांधी को सुपर प्राइम
मिनिस्टर बनाए रखने के मकसद से बनाई गई थी, लेकिन समिति के सदस्य समाज के
अलग-अलग क्षेत्रों में लगातार कार्य करने वाले योग्य व्यक्ति थे।
संप्रग
सरकार में कमजोर लोगों की मदद के लिए सूचना का अधिकार, भोजन का अधिकार,
शिक्षा का अधिकार जैसे बेहद महत्वपूर्ण कानून इसी सलाहकार समिति के सदस्यों
के सुझाव पर बने, लेकिन 2017 में सामने आई एनएसी की फाइलों से साबित हुआ
कि कैसे राष्ट्रीय सलाहकार समिति ने संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त किया।
मंत्रलयों से ज्यादा प्रभाव एनएसी का हुआ करता था।
संप्रग शासनकाल में राष्ट्रीय सलाहकार समिति के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अर्थशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्ट ने मिलकर एक ‘मिशन जय हिंद’ का सुझाव सरकार को दिया है। ऐसे लोग क्या चाहते हैं, इसे समझने के लिए मिशन जय हिंद को ध्यान से पढ़ने की जरूरत है। प्रोफेसर प्रणब बर्धन, च्यां द्रेज, अभिजीत सेन, जयति घोष, देबराज रे, आर नागराज, अशोक कोतवाल, संतोष मेहरोत्र, अमित बसोले और हिमांशु जैसे अर्थशास्त्री इसके मूल प्रस्तावक हैं और नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन इससे पूरी तरह सहमति रखते हैं।
इसके अलावा राजमोहन गांधी, हर्ष मंदर, निखिल डे, एडमिरल रामदास, आकार पटेल, बेजवाडा विल्सन, आशुतोष वाष्ण्रेय, दीपा सिन्हा और योगेंद्र यादव जैसे बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट इसका समर्थन कर रहे हैं। ये सभी बड़े अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट की श्रेणी में श्रेष्ठ दिखते हैं, लेकिन आखिर मिशन जय हिंद के जरिये ये लोग देश को उबारना कैसे चाह रहे हैं, इसे समझना बेहद जरूरी है।
मिशन जय हिंद के लिए जरूरी संसाधन जुटाने के लिए कुछ भी किया जाए और इसके लिए सुझाव दिया गया है कि देश के सभी व्यक्तियों की संपत्तियों को सरकार अपने कब्जे में कर ले और इससे आए राजस्व का आधा राज्यों के साथ बांट दे। जब देश में सबके एक साथ खड़े होने की जरूरत है, तब सरकार को लोगों की संपत्ति जब्त करने जैसा सुझाव देकर सरकार को तानाशाह साबित करने और वर्ग संघर्ष खड़ा करने की कोशिश की जा रही है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि नरेंद्र मोदी जनता की संपत्ति जब्त करने जैसा जनविरोधी निर्णय कतई नहीं लेगी, लेकिन जरूरी है कि देश को इन बंधुआ, कुतर्की अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट के बारे में स्पष्टता से पता हो। एक विशेष तरह की सरकार की इच्छा रखने वाले अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट लगातार ऐसी स्थिति बना रहे हैं, जिससे नागरिक समाज की भूमिका संदेह का दायरे में आ रही है और यह स्थिति भी समाज के लिए अच्छी नहीं है।
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